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1. 1857 की क्रांति में भोपाल रियासत की भूमिका का मूल्यांकन

सम्पूर्ण भारत के साथ 1857 की क्रांति का प्रभाव भोपाल रियासत पर भी प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ा भोपाल रियासत में एक ओर जहाँ शासक वर्ग ब्रिटिश सरकार का वफादार रहा। वहीं आम जनता एवं फाजिल मोहम्मद खान, आदिल मोहम्मद खान एवं आमिल खान जैसे क्रांतिकारियों ने भोपाल रियासत में 1857 की क्रांति का संचालन किया। भोपाल रियासत में 1857 की क्रांति का प्रसार क्रम निम्नानुसार है
- 1857 की क्रांति का प्रारंभ भोपाल रियासत में सीहोर के सैनिक विद्रोह से हुआ।
- रायसेन जिले की सिलवानी तहसील से गढ़ी अंबापानी के जागीरदार फाजिल मोहम्मद खान तथा आदिल मोहम्मद खान ने भोपाल की सैनिक टुकड़ी के साथ मिलकर 8 जुलाई, 1857 को सीहोर को लूटा तथा सीहोर के राजनीतिक प्रतिनिधि मेजर रिचर्डस को वहाँ से भागना पड़ा।
- 18 जुलाई, 1857 को आदिल मोहम्मद खान ने फाजिल मोहम्मद खान के साथ मिलकर सीहोर पर आक्रमण किया तथा सीहोर छावनी पर कब्जा कर लिया।
- फाजिल मोहम्मद खान ने गढ़ी अम्बापानी पर हमले की योजना बनाई एवं उस पर कब्जा किया।
- 29 सितम्बर, 1857 को फाजिल मोहम्मद खान तथा आदिल मोहम्मद खान ने पठारी पर आक्रमण किया तथा पठारी के नवाब हैदर मोहम्मद खान पराजित होकर भाग गये। फाजिल मोहम्मद खान ने पठारी की गढ़ी में एक थाना स्थापित किया।
- नवम्बर, 1857 में ब्रिटिश शासन ने फाजिल मोहम्मद खान की जागीर गढ़ी अम्बापानी को जब्त कर लिया तथा वहाँ एक नायब बख्शी तैनात किया गया।
- दिसम्बर, 1857 में ह्यूरोज ने विद्रोह दबाने के लिए कमान सम्भाली तथा 15 जनवरी 1858 को सीहोर में विद्रोह का दमन किया ।
- 28 जनवरी, 1858 को ह्यूरोज ने राहतगढ़ पर आक्रमण किया तथा फाजिल मोहम्मद खान को पकड़कर राहतगढ़ के किले के प्रवेश द्वार पर फाँसी पर लटका दिया।
- आदिल मोहम्मद खान ने राहतगढ़ से भागकर तात्याटोपे के साथ मिलकर अप्रैल, 1858 में झाँसी की रानी को सहायता प्रदान की तथा सितम्बर 1858 में सिरोंज (विदिशा ) पर अधिकार कर लिया।
- 29 अप्रैल, 1859 को आदिल मोहम्मद खान ने अमानत खान के साथ मिलकर भोपाल के नायब बख्शी से युद्ध किया तथा 15 मई, 1859 को पिपरिया के किले पर कब्जा कर लिया।
- उपरोक्त वर्णित तथ्य स्पष्ट करते हैं कि 1857 ई. में हुये भारत के प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष में भोपाल रियासत ने अंग्रेज सत्ता के साथ मिलकर बराबरी से क्रांति का दमन किया।
2. सूती कपड़ा उद्योग
- सूती कपड़ा उत्पादन की दृष्टि से प्रदेश का स्थान महाराष्ट्र गुजरात के बाद तीसरा है इंदौर राज्य उद्योग का सबसे बड़ा कपड़ा उत्पादक केन्द्र है। मध्य प्रदेश की वर्धा व पूर्णा नदी की पाटियों में कपास की खेती की जाती है। बरोरा की खानों से कोयला व चम्बल योजना से रियायती दामों पर विद्युत की उपलब्धता प्रदेश में उद्योग के विकास के सहायक घटक रहे हैं।
- इन सूती कारखानों का संकेंद्रण पश्चिमी मध्य प्रदेश में है जिनमें इंदौर, ग्वालियर व उज्जैन प्रमुख है। वर्तमान में राज्य में 65 सूती वस्त्र मिलें संचालित है। प्रथम मिल बुरहानपुर में वर्ष 1906 में स्थापित की गई थी। परन्तु यह असफल रही, तत्पश्चात् 1907 में मालवा मिल (इंदौर) की स्थापना की गई
स्थानीयकरण के कारण
- कच्चा माल पश्चिमी मध्यप्रदेश कपास के उत्पादन का महत्त्वपूर्ण क्षेत्र रहा है।
- परिवहन के साधन-सूती कपड़े के कारखाने सामान्यतः बड़े नगरों में है जो रेल और सड़क मार्गों द्वारा बाजारों से जुड़े है, जिससे कपड़ा विभिन्न बाजार केन्द्रों तक भेजने में कठिनाई नहीं होती हैं। सस्ते श्रमिक की उपलब्धता-पश्चिमी मध्यप्रदेश तथा राजस्थान के मजदूर इन कारखानों में काम करते हैं। उत्तरी
- भागों के कारखानों में उत्तरप्रदेश के मजदूर भी आते हैं. इस कार्य में कुशलता थोड़े ही समय में आ जाती है। अतः अकुशल मजदूर कुछ समय पश्चात् औद्योगिक प्रक्रिया में निपुण हो जाते हैं।
- पूँजी की उपलब्धता- मध्यप्रदेश में सूती कपड़ा उद्योग के वितरण का एक प्रमुख कारण यह रहा है कि यह उन उद्योगों में से है जो रियासतों में प्रारम्भ हुये थे। मध्य भारत की रियासतों की राजधानियों इनका प्रमुख स्थापन स्थल थी। राजाओं ने बिना मूल्य के भूमि दी, करों को कम किया गया, विद्युत शक्ति का प्रबंधन किया गया जिससे इस उद्योग को संरक्षण मिल सका। अब आधुनिक समय में सरकारें भी सस्ते दामों पर भूमि, बिजली आदि आधारभूत संरचनाएँ प्रदान करती हैं।
- बाजार की निकटता मध्यप्रदेश में जनसंख्या अधिक होने के कारण बाजार बड़ी मात्रा में उपलब्ध है।
- ऊर्जा की उपलब्धता मध्यप्रदेश में पर्याप्त मात्रा में ऊर्जा उपलब्ध कराई जा रही है।
- पानी की उपलब्धता मध्यप्रदेश में इन कारखानों को पानी नगरों की जल प्रदाय योजना से अथवा सील एवं नलकूपों से मिलता है।
3. जनजातियों की आर्थिक समस्याएं एवं उनका समाधान
- भूमि की उर्वरता में कमी- वनों के बीच जनजातियों की छोटी बस्तियाँ या गाँव पाये जाते हैं। अधिकतर खेत इयाँ अथवा ऊँची-नीची भूमि पर मिलते हैं। वनों को जलाकर भूमि पर कृषि करने पर मिट्टी का तेजी से अपरदन तथा निक्षालन होता है और शीघ्र उसकी उर्वरता नष्ट हो जाती है। झाबुआ, छिंदवाड़ा. मंडला और बैतूल में यह गम्भीर समस्या है। साधारणतः भूमि की सुरक्षा वनों से होती है, किन्तु अधिक वर्षा वाले प्रदेशों में खेतों के चारों ओर बाँध भी बनाते हैं। इन लोगों को भूमि के संरक्षण से परिचित कराना आवश्यक है।
- सिंचाई के ज्ञान का अभाव- जनजातियाँ सिंचाई करना नहीं सीख सकी हैं। अतः प्राकृतिक प्रकोप से कई बार खेती नष्ट हो जाती है और भोजन की गम्भीर समस्या होती है। प्रति हेक्टेयर उपज बहुत कम होती है। आदिम कृषि पद्धतियों के कारण एक परिवार को साल भर भोजन नहीं मिल पाता।
- भू-स्वामी न होना- भूमि स्वामित्व भी जनजातियों में सीमित है। सर्वेक्षण से ज्ञात होता है कि ये लोग भूमि अन्य भूमिधारियों अथवा सरकार से प्राप्त करते हैं। झाबुआ में यह प्रथा अधिक है। अधिकतर आदिवासी विकास योजनाओं का लाभ नहीं ले पाये हैं। इनको आर्थिक सहायता तथा ऋण प्राप्त करने की सुविधा शासन द्वारा दी जाती है, जो भूसंरक्षण, सिंचाई, रासायनिक उर्वरक तथा साग-सब्जी उगाने के लिए मिल सकती है, किन्तु देखा गया कि जितनी आर्थिक सहायता इन्हें दी जाती है वह पर्याप्त नहीं होती आवश्यकता इस बात की है उन्हें कृषि के आधुनिक बंगों से सुपरिचित कराया जाये एवं अधिक आर्थिक सहायता दी जाये।
- परंपरागत खेती करना– आदिवासियों द्वारा फलों की खेती के विकास की भी समुचित सम्भावनाएँ है। आम तथा कटहल पूर्वी मध्यप्रदेश के प्रचलित फल हैं जिनके वृक्ष लगा सकते हैं। इन फलों से इन्हें अतिरिक्त भोजन भी मिल सकता है तथा विक्रय भी किया जा सकता है। आलू बुखारा, अमरूद, नींबू, सन्तरा पपीता आदि भी इन प्रदेशों में हो सकता है। किन्तु आवश्यकता इस बात की है कि आदिवासियों को बीज, पौध, खाद तथा सिंचाई के साधन दिये जाएँ। परिवहन की सुविधा भी हो, जिससे नष्ट होने के पूर्व उपज बाजार तक पहुंचाई जा सके तथा बाजार में विक्रय की व्यवस्था भी आवश्यक है।
- पशुओं की गुणवत्ता न होना- आदिवासी क्षेत्रों में पशुपालन की भी सम्भावनाएँ हैं। अन्य प्रदेश में चारे की बहुतायत है और वनवासियों को पशुपालन से अतिरिक्त आर्थिक लाभ एवं भोजन प्राप्त हो सकता है। यहाँ पशु एवं पक्षी साधारण नस्ल के मिलते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि अच्छी नस्ल के पशु-पक्षी उपलब्ध कराये जायें। नयी नस्लें इस प्रदेश की नस्लों के समान हो। मंडला में रामगढ़ी तथा पश्चिमी मध्यप्रदेश में निमा नस्ल के जानवर हैं। कृषि में चारे की फसलों का समावेश भी किया जाये, जिससे सूखे के मौसम में भी पशुओं को पौष्टिक आहार मिलता रहे तथा चारा खरीदने की भी सुविधा हो। मुर्गा मुर्गियों का पालन जनजातियाँ देवताओं पर बलि चढ़ाने के लिए करती हैं। यदि ये लोग कुक्कुट पालन के वैज्ञानिक ढंग सीख सके एवं बढ़े पैमाने पर विकास करें तो अतिरिक्त पौष्टिक भोजन एवं आर्थिक आधार मिल सकता है।
- वनोपज का सही मूल्य नही मिलना- कृषि के अतिरिक्त जनजातियों का आर्थिक आधार वनों से प्राप्त सामग्री। है। ये लोग वनों से अनेक चीजें एकत्रित करते हैं और साप्ताहिक बाजारों में इनके बदले आवश्यकता की वस्तुएँ खरीदते हैं। ये लोग अधिकतर बहुत सीमित मात्रा में सामग्री लाते हैं। देखा गया है कि तौल एवं वास्तविक मूल्य से अनभिज्ञ होने के कारण बहुत सस्ते में अपनी वस्तुओं को दे देते हैं। व्यापारी इनकी अज्ञानता का लाभ उठाते हैं, अतः जल्दी ही ये ऋण के बोझ से दब जाते हैं। परिणामतः अनेक बार इन्हें पर्याप्त भोजन भी प्राप्त नहीं होता। अपनी भूमि पर लगे वृक्षों की लकड़ी भी ये लोग बहुत सस्ते में बेच देते हैं।
- ऋणग्रस्तता- ऋणग्रस्तता आदिवासियों की अर्थव्यवस्था का अभिन्न अंग बन गया है। परिणामतः ये लोग बंधक मजदूर हो जाते हैं जिससे ऋणदाता इनका शोषण करता रहता है। हाट में आने वाले व्यापारी भी इन्हें ऋण के बन्धन में बाँध लेते हैं जिससे भी इन्हें सरलता से मुक्ति नहीं मिलती ।
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4. भावांतर योजना
- प्रारंभ- 16 अक्टूबर 2017 को सागर जिले के खुरई में किया गया।
- किसानों को उत्पाद का उचित मूल्य प्रदान करने हेतु एक पायलट योजना के रूप में भावान्तर भुगतान योजना प्रारंभ की गई।
- प्रारंभ में इसमें केवल 8 खरीफ फसलों (सोयाबनी, मूंगफली, तिल, रामतिल, मूंग, उड़द, मक्का और तुअर) को शामिल किया गया था किन्तु वर्तमान में प्रदेश की सभी फसलों (रबी एवं खरीफ) को इसमें शामिल किया गया है।
उद्देश्य
- कृषि उत्पादों का उचित मूल्य प्रदान करना। फसलों की कीमत में होने वाले उतार चढ़ाव को कम करना।
- कृषक आत्म हत्याओं को रोकना ।
- दलहन एवं तिलहन को बढ़ावा देना ।
प्रावधान
- भावांतर योजना से सरकार किसानों को दालों और तिलहन के साथ ही बागवानी लिए प्रेरित करती है।
- भावांतर योजना से जुड़ा भुगतान तीन माह से अधिक लंबित रहता है, तो किसान को इनाम मिलेगा यह पैसा कर्मचारी के वेतन से काटा जाएगा।
- एसएमएस से किसानों को भावांतर की राशि के भुगतान की सूचना मिलती है।
- भावांतर भुगतान योजना के अनुसार यदि कृषि उत्पाद का बिक्री मूल्य अधिसूचित मूल्य से अधिक है, लेकिन न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम है तो उनके बिक्री मूल्य और एमएसपी के बीच का अंतर किसान के बैंक खाते में जमा कर दिया जाएगा।
- किसानों के बैंक खाते में सीधे भावांतर का पैसा आएगा बाजार भाव और न्यूनतम सर्मथन मूल्य के बीच के अंतर की राशि किसानों के खातें में जमा की जाती है।
- इसके अन्तर्गत रबी एवं खरीफ की फसलों व बागबानी फसलों को शामिल किया गया है। इस योजना के सफलतापूर्वक क्रियान्वयन हेतु किसानों के लिए मध्यप्रदेश में गिरदावरी मोबाइल ऐप की शुरूआत की गयी है।
- इस योजना के अंतर्गत जमीन संबंधित कई कार्य जैसे जमीन की सीमा तय करना, सीमा सरहदी करना कोई अन्य विवाद तीन महीने के अंदर हल होना चाहिये अगर ऐसा नहीं होता है तो संबंधित अधिकारी पर कार्यवाही की जायेगी और किसानों के नुकसान की भरपाई भी संबंधित अधिकारी के द्वारा उसके एकाउंट से की जायेगी।
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