1857 का स्वतंत्रता संग्राम : सागर और दमोह के जिले बुंदेलखण्ड के राजा छत्रसाल द्वारा पेशवा को प्रदान किये गये थे और लार्ड हेस्टिंग्स द्वारा पेशवा को राज्यच्युत किये जाने के बाद ये जिले पूना की संधि के अधीन सन् 1817 में अंग्रेजों में मिला लिए गये थे; किन्तु देश का यह भाग मार्च 1818 तक अंग्रेजों के वास्तविक आधिपत्य में नहीं आया था और उसके बाद भी पेशवा के अधीन सागर के प्रदेश के अधिकारी की विधवा की ओर से शासन व्यवस्था चलाने वाले विनायकराव द्वारा किये गये प्रतिरोध का दमन करके ही वे यहाँ अधिकार जमा सके थे। जनरल मार्शल ने सागर और उसके अधीनस्थ क्षेत्रों पर अधिकार किया और सीताबर्डी के युद्ध में पराजित होने के बाद अप्पासाहेब द्वारा सौंपे गये मंडला, बैतूल, सिवनी और नर्मदा घाटी जिलों पर कब्जा करने के लिए वह आगे बढ़ा। मंडला के किलेदार ने जिसे अप्पासाहेब का किला न सौंपने का गुप्त आदेश मिल गया था, प्रतिरोध किया। किन्तु जबलपुर से नयी सेनाएँ आ गई और इस बढ़ी हुई शक्ति के साथ जनरल मार्शल ने किले पर घेरा डाल दिया तथा दीवारें तोड़ दीं, जिससे दूसरे दिन सबेरे किले पर उसका अधिकार हो गया।
मध्यप्रदेश में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम के घटना और परिणाम
ये प्रदेश जिनका कुछ भाग पेशवा से कुछ नागपुर के राज्य से प्राप्त किया गया था, सन् 1820 में सागर-नर्मदा के नाम से एक प्रदेश के रूप में गठित किये गये तथा गवर्नर जनरल के एजेन्ट के अधीन रखे गये। यह क्षेत्र सागर, नरसिंहपुर, होशंगाबाद एवं जबलपुर के अतिरिक्त सर्वत्र पहाड़ियों और जंगलों से संकुलित था। यह भूमिखण्ड प्राकृतिक उर्वरता और विपुल उत्पादन क्षमता से युक्त था तथा समुचित व्यवस्था द्वारा उसकी समृद्धि और भी बढ़ सकती थी। किन्तु अंग्रेजी शासन के अधीन संभवतः अनिवार्य रूप से परिणाम यह हुआ कि देश में निर्धनता आ गई और इन अधिकारच्युत व्यक्तियों का एक ऐसा बहुसंख्यक एवं प्रभावशाली वर्ग उत्पन्न हो गया। जिसने इस क्षेत्र में आजादी की मशाल को प्रज्ज्वलित कर दिया।
मई मास के प्रारंभ में ही सागर, दमोह और जबलपुर में यह खबर फैल गई। थी कि शासन के आदेश के अनुसार आटा तथा शकर में सुअर और गाय का रक्त तथा हड्डी का चूरा मिला दिया गया था (अर्सकिन का विवरण)। दिल्ली और मेरठ की घटनाओं का समाचार उनके एक सप्ताह के पश्चात् ही सागर और जबलपुर में पहुँच गया था। परन्तु यूरोपियनों और सिपाहियों में बहुत अधिक व्यग्रता के होते हुए भी इस मास के अंत तक इन क्षेत्रों में कुछ नहीं हुआ। परन्तु जून मास के प्रारंभ होते ही घटनाएँ तेजी से घटित होने लगीं। इसी बीच सतलज से गंगा तक का समस्त प्रदेश प्रज्ज्वलित उठा था। पहले लखनऊ में, फिर नाना साहेब के स्थान कानपुर में और फिर झाँसी में, सभी जगह घटनाक्रम का रूप एक-सा था। सैनिक टुकड़ियाँ यूरोपियन अफसरों के विरुद्ध भड़क उठीं, जिन्हें या तो मौत के घाट उतार दिया गया या उनके सुरक्षा-स्थानों में ही उन्हें बंदी बना दिया गया।
मध्यप्रदेश में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और उसके कारण
सन् 1842 में बुंदेला विद्रोह के परिणामस्वरूप इन जिलों के प्रशासन में एक महत्वपूर्ण कदम उठाया गया था। सागर-नर्मदा के क्षेत्र उत्तर पश्चिमी प्रान्त के साथ मिला दिये गये थे जिनका प्रशासन आगरा के लेफ्टिनेंट गवर्नर तथा सदर रेवेन्यू बोर्ड द्वारा किया जाता था। इन क्षेत्रों के लिए मेंजर अर्सकिन को कमिश्नर नियुक्त करके उसे जबलपुर में रखा गया।
झाँसी के विद्रोह का समाचार सागर में 8 जून को पहुँचा और उसके साथ ही यह खबर भी पहुॅची कि बानपुर के राजा ने ललितपुर में एक बड़ी सेना इकट्ठी कर ली है। साथ ही यह सूचना भी मिली कि शाहगढ़ का राजा जिसका अधिकार क्षेत्र दमोह और सागर जिलों के उत्तर पश्चिम में था, अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ने के आशय से सेना इकट्ठी कर रहा है। कुछ दिनों के भीतर ही यह दिखाई देने लगा कि नर्मदा के उत्तर का समस्त क्षेत्र युद्धोद्धत हो गया है। बानपुर के राजा ने ललितपुर पर अधिकार कर लिया और सभी यूरोपियनों को बन्दी कर लिया। ललितपुर की सहायता के लिए मेजर गौसन के अधीन जो सेना भेजी गई वह मालथौनः के आगे न बढ़ सकी क्योंकि उसकी सभी घाटियाँ राजा की सेना की बड़ी-बड़ी टुकड़ियों के अधिकार में थी। राजा के सैनिकों और मेजर गौसेन की सेना के सिपाहियों के बीच संदेशों का आदान-प्रदान हुआ और 25 जून को मेंजर के सिपाहियों ने खुली अवज्ञा प्रारंभ कर दी। इस बीच बानपुर के राजा द्वारा बन्दी बनाये गये अंग्रेज अफसरों और महिलाओं को सागर जाने की अनुमति दे दी गई परन्तु मार्ग में उन्हें शाहगढ़ के राजा द्वारा पकड़कर बन्दी बना लिया गया। बंदियों को तीन मास तक रखने के पश्चात् उन्हें सागर जाने दिया गया जहाँ वे अत्यंत क्षीण दशा में पहुँचा सके। तथापि यह उल्लेखनीय है कि इन स्थानों में से किसी पर भी अंग्रेजों की अविवेकपूर्ण हत्या नहीं की गई।
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इस बीच सागर में भी स्थिति कुछ सरल नहीं थी। सागर के सेनानायक ब्रिगेडियर सेज को भय था कि किसी भी क्षण उपद्रव प्रारंभ हो सकता है और उसने नगर के पुराने किले की किलेबंदी तथा उसकी सुरक्षा करने का निश्चय किया। उसने अनुभव किया कि यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि यह किला विद्रोहियों के हाथ में न पड़े क्योंकि उसमें शस्त्रगार तथा रसद के विशाल संग्रह होने के अतिरिक्त भी यही एकमात्र स्थल था जहाँ यूरोपियन तथा ईसाई निवासियों को सशस्त्र आक्रमण होने की दशा में सुरक्षा मिल सकती थी। आशंकित क्रांति का प्रारंभ 1 जुलाई के सबेरे हुआ जब सागर में स्थित अनियमित घुड़सवार सेना ने विद्रोह कर • दिया। साथ ही बयालीसवीं पैदल सेना के सूबेदार शेख रमजान ने इस्लाम का झंडा ऊँचा किया और नगाड़े की चोट पर उसका साथ देने के लिए सबको आमंत्रित – किया। अन्य अनेक सैनिक टुकड़ियों ने उत्क्रांति का साथ दिया। वे सदर बाजार और नगर की छावनी में अफसरों के घरों को लूटते हुए घुसने लगे। उनने न तो 1. घरों में आग लगाई और न किसी विदेशी को जान से मारा। अगले दिन इन
विद्रोहियों में से कुछ ने दमोह की ओर कूच कर दिया तथा शेष सागर में रह गये। उनने मालधीन में तैनात सेना को सहायता पहुंचाई तथा शेख रमजान को अपना सेनापति घोषित किया। सेना का वह भाग जो दमोह की ओर गया था वहाँ 4 जुलाई को पहुँच गया और उसने देखा कि वहाँ के सीनियर अफसर, उस एक महिला के साथ जो उनके साथ थीं, नरसिंहपुर भाग गये थे। दिखता यह है कि दमोह के डिप्टी कमिश्नर का पहले यह विचार था कि समस्त कोष को जेल के किले में रख दिया जाय और किले में आत्मरक्षा के लिए रहा जाये। परन्तु अंतिम क्षण में उसे उन भारतीय सैनिकों की विश्वस्तता के प्रति संदेह उत्पन्न हो गया जिन पर उस किले की रक्षा का भार था, वे उसी सैनिक दल के थे जिसने सागर में विद्रोह कर दिया था। अतएव सभी अफसर उस एक महिला के साथ रात को चुपचाप अपनी पीठ पर लदे कपड़ों के अतिरिक्त अन्य कोई सामान लिए बिन दमोह से चल दिये। इस दशा में उनने नरसिंहपुर तक सत्तर मील की यात्रा की और वहाँ सुरक्षित तो पहुँच गये तथापि वे भूख और वर्षा से अत्यंत फटेहाल हो गये थे। परन्तु दमोह के किले में रहने के संबंध में उनका भय नितांत आधारहीन सिद्ध हुआ क्योंकि उन सैनिकों ने जो दमोह के किले की रक्षा कर रहे थे, सागर से दमोह पहुँचने वाले विद्रोहियों का साथ नहीं दिया इसके विपरीत उनने खजाने की रक्षा की और उसे हाथ से नहीं जाने दिया परिणाम यह हुआ कि अंग्रेज इतिहासकारां द्वारा अंग्रेजों से विद्रोह करने वाले सिपाहियों के विरुद्ध लगाया गया विवेकहीन निर्दयता का आरोप सभी स्थानों पर सही नहीं है जो हो, जिस सरलता तथा द्रुतगति से नर्मदा सागर क्षेत्र के नगर के बाद नगर पर स्थानीय ठाकुरों और राजाओं तथा विद्रोही नेताओं का अधिकार होता गया यह अत्यंत भिन्न परिस्थिति का द्योतक है। यह स्पष्ट ज्ञात होता कि सन् 1842 में अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने वाले बुंदेलखण्ड राजपूत, गोंड और लोधियों के पुराने सत्ताधारीवर्ग तथा अफसरों के विरुद्ध उठ खड़े होने वाले देशी सिपाहियों के बीच बहुत निकट संपर्क तथा पारस्परिक विश्राम विद्यमान था। परिणाम यह हुआ कि सागर में विद्रोह प्रारंभ होने के दो मास के भीतर यह समस्त क्षेत्र स्वतंत्रता संग्राम के सैनिकों के हाथों में आ गया।
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इस बीच जबलपुर में यद्यपि बेचैनी अधिक थी, परन्तु कुछ नहीं रहा था। वहाँ उस एकमात्र घटना के पश्चात् जी 15 जून को घटित हुई थी. यूरोपियन अफ और सिपाही भयत्रस्त रहने लगे थे 15 तारीख को जब एक एजुकेटेड अपनी रेजिमेंट के गार्ड का निरीक्षण कर रहा था, एक सिपाही ने जो संभवतः झाँसी से आने वाले समाचारों को सुनकर असतुलित और उत्तेजित हो गया था, उस एजुकेटेड पर अपनी बंदूक से आक्रमण कर दिया और इस आक्रमण से उसके खरोंच मात्र आयी थी। सिपाही पर काबू पा लिया गया; उसे गार्डरूम में बन्द कर दिया गया। बाद में चिकित्सकों द्वारा जाँच करने पर यह सिपाही पागल ज्ञात हुआ और बनारस के पागल खाने में भेज दिया गया। परन्तु संभवतः कर्नल नील के अत्याचारों से उत्पन्न उन्माद की मनोवृत्ति से प्रेरित होकर बनारस में उस सिपाही को सही मस्तिष्क का घोषित कर उसे फाँसी दे दी गई। परन्तु इस घटना ने ही जबलपुर के यूरोपियनों में अत्यधिक भय की स्थिति उत्पन्न कर दी। अफवाहें फैल रही थीं कि कुछ ठाकुर और सरदार विद्रोह करने वाले हैं और अंग्रेजों के विरुद्ध सिपाहियों से मिल जाने वाले है। उन्हें आशंका यह थी कि वे विद्रोही सेनाएँ जो सागर से दमोह पहुँच गई थी, जबलपुर की ओर धावा बोलेंगी। निश्चय यह किया गया कि नगर के सब यूरोपियन तथा ईसाई औरतों और बच्चों तथा अफसरों को कमिश्नर के निवास स्थान पर एकत्र कर लिया जाये, जिसे नाकाबन्द करके सुरक्षा योग्य बनाया जा सकता था। मेजर अर्सकिन ने वर्णन किया है कि इस रात किस प्रकार पैंतालीस वयस्क, जिसमें से दस महिलाएँ थीं तथा पन्द्रह बच्चे, उसके हॉल में भोजन करने के लिए बैठे और उस समय सारजेंटो तथा नागरिकों ने बारी-बारी से घर के चारों ओर पहरा दिया।
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दमोह जिले में परिस्थिति बिलकुल भिन्न थी यह जिला तथा सागर दोनों ही पूर्णतः विद्रोही सेनाओं के अधिकार में थे। दमोह के सब लोधी सरदार शाहगढ़ के विद्रोहियों से मिल गये थे। वे अपनी बनायी हुई बन्दूकों से भी लैस थे। इन जिलों की पुलिस के सिपाही या तो विद्रोह में सम्मिलित हो गये थे या फिर भाग रहे थे। अनेक सप्ताह तक सागर या दमोह में डाक नहीं आई थी। अनेक दिनों गये थे। सैकड़ों मालगुजार विद्रोहियों की जन-जन और भोजन से सहायता कर – फिर हाथ से निकल गये थे। इस प्रकार सन् 1857 के अगस्त मास में नर्मदा के तक यातायात ठप्प रहा। उपद्रव के पुराने स्थल चावरपाठा, पट्ठा तथा तेन्दूखेड़ा उत्तर के लगभग सभी स्थान, जबलपुर और मंडला को छोड़कर स्वतंत्रता युद्ध की
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सेना के आधिपत्य में पहुँच गये थे। परन्तु शीघ्र ही जबलपुर में घटनाएँ द्रुतगति से घटित होने लगी। वे उत्सुक तैयारियाँ जो कमिश्नर तथा यूरोपियन अफसरों ने अपनी सुरक्षा के लिए की थी. व्यर्थ नहीं थी। अगस्त के पूरे महीने भर उस जिले के ठाकुर और मालगुजार विद्रोह
सागर नर्मदा क्षेत्र में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम क्या है?
सागर नर्मदा क्षेत्र में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम भारतीय स्वतंत्रता संग्राम का एक महत्वपूर्ण घटना था जो मुगल साम्राज्य के अंत के दौरान भारत में हुए थे।
स्वतंत्रता संग्राम के क्या कारण थे?
स्वतंत्रता संग्राम के कारण भारतीयों की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक समस्याओं पर अंग्रेज साम्राज्य का विशेष दबाव था। इसके अलावा, विदेशी ईसाई धर्म परिवर्तन और अंग्रेज सत्ता के तंग करने वाले नीतियों के कारण भी संग्राम हुआ था।
सागर नर्मदा क्षेत्र में स्वतंत्रता संग्राम में कौन-कौन शामिल थे?
सागर नर्मदा क्षेत्र में स्वतंत्रता संग्राम में भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों जैसे तांबे वाला बाबा, राजा गुलाब सिंह, तात्या टोपे, नाना साहब और रानी लक्ष्मीबाई शामिल थे।