संविधान निर्माण में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका ? Role of Dr. Ambedkar in Constitution Making ?

Advertisement

1.    संविधान निर्माण में डॉ. अम्बेडकर की भूमिका ?  Role of Dr. Ambedkar in Constitution making ?

  • डॉ. अम्बेडकर भारतीय संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष थे वर्तमान भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ. अम्बेडकर का महान योगदान रहा।
  • डॉ. अम्बेडकर का राजनीतिक चिंतन काफी कुछ यूरोप के उदारवादी चिंतन और परम्परा से प्रभावित था, जिसने व्यक्ति के जीवन, सम्पत्ति और स्वतंत्रता के मूल्यों को सर्वोपरि रखा। इसी का प्रभाव था, कि डॉ. अम्बेडकर व्यक्तिगत सम्पत्ति और संसदीय प्रणाली को व्यक्ति के विकास के लिए अनिवार्य मानते थे।
  • डॉ. अम्बेडकर ने द्विसदनीय व्यवस्थापिका का समर्थन किया। उन्होंने राष्ट्रपति को संवैधानिक अध्यक्ष बनाने का समर्थन किया
  • मंत्रियों की योग्यता के संबंध में डॉ. अम्बेडकर का तर्क काफी कुछ व्यावहारिक था। एक विचार यह था, कि कोई भी व्यक्ति यदि वह व्यवस्थापिका का सदस्य नहीं है तो मंत्री नहीं होना चाहिए, पर डॉ. अम्बेडकर का विचार था कि ऐसी अनिवार्यता नहीं होनी चाहिए। यदि कोई योग्य व्यक्ति है और वह एक स्थान से चुनाव में पराजित हो जाता है तो भी उसे मंत्री बनाया जाना चाहिए तथा यह शर्त रखनी चाहिए कि 6 माह के अंदर वह किसी अन्य स्थान से निर्वाचित होकर सदन का सदस्य बन जाए।
  • डॉ. अम्बेडकर ने संवैधानिक उपबंधों के माध्यम से दलित और शोषित वर्ग को आत्मसम्मान और गौरवपूर्ण स्थिति प्रदान करने का प्रयत्न किया ।
  • सामाजिक व्यवस्था में आमूल परिवर्तन करने की दृष्टि से ही भारतीय संविधान की धारा 14 और 17 में सभी नागरिकों को न केवल समान अधिकार प्रदान किए गए, अपितु छुआछूत को समाप्त करते हुए उसके बढ़ावे को अपराध माना गया।
  • नागरिक स्वतंत्रता को हर परिस्थिति में बनाए रखने का विचार डॉ. अम्बेडकर का था इसलिए संवैधानिक उपचार के अधिकारों के संबंध में उन्होंने कहा, यदि कोई मुझसे यह पूछे कि संविधान का वह कौन-सा अनुच्छेद है जिसके बिना संविधान शून्य प्रायः हो जाएगा तो उस अनुच्छेद को छोड़कर मैं और किसी अनुच्छेद की और संकेत नहीं कर सकता? यह तो संविधान का हृदय तथा आत्मा है। मेरे विचार में यह व्यक्ति की सुरक्षा का सबसे महत्त्वशाली परिणाम है। भारतीय संविधान के निर्माण में डॉ. अम्बेडकर की अथक भूमिका को ध्यान में रखते हुए तथा उनके व्यापक कानून संबंधी ज्ञान को देखते हुए ही उन्हें आधुनिक मनु कहा जाता है।

Advertisement

2.  ग्राम न्यायालय की विशेषताएँ ? Features of Gram Nyayalaya ?

  • ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अनुसार ग्राम न्यायालयों की प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित है
  • ग्राम न्यायालय एक चलित (मोबाइल) न्यायालय होगा तथा यह दीवानी एवं फौजदारी दोनों न्यायालयों की शक्तियों का उपयोग करेगा ।
  • ग्राम न्यायालय फौजदारी मुकदमों में संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुसरण करेगा ।
  • ग्राम न्यायालय प्रथम श्रेणी के दंडाधिकारी की अदालत होगा तथा इसके न्यायाधीश की नियुक्ति राज्य सरकार उच्च न्यायालय की सहमति से करेगी ।
  • ग्राम न्यायालय की पीठ मध्यवर्ती पंचायत मुख्यालय पर स्थापित होगी, जो गाँवों में जाकर कार्य करेंगे एवं मामलों का निस्तारण करेंगे ।
  • ग्राम न्यायालय प्रत्येक पंचायत के लिये स्थापित किया जाएगा । जिले में मध्यवर्ती स्तर या मध्यवर्ती स्तर के पंचायतों के एक समूह के लिये या जिस राज्य में मध्यवर्ती स्तर पर कोई पंचायत न हो, वहाँ पर पंचायतों के एक सशक्त समूह के लिये ऐसे न्यायालय स्थापित किये जाएंगे ।
  • ग्राम न्यायालय में फौजदारी मामलों एवं दीवानी मामलों पर दावों एवं वादों पर अदालती कार्यवाही चलेगी जैसा कि अधिनियम की पहली एवं दूसरों अनुसूची में विनिर्दिष्ट है ।
  • केन्द्र एवं राज्य सरकारों को उनकी विधायी शक्ति के अनुसार अधिनियम में पहली एवं दूसरी अनुसूची को संशोधित करने का अधिकार प्रदान किया गया है।
  • जो न्यायाधिकारी ग्राम न्यायालय की अध्यक्षता करेगा, वह अनिवार्य रूप से न्यायिक अधिकारी होगा एवं उसे उच्च न्यायालय के अधीन कार्य करते हुए प्रथम श्रेणी के दहाधिकारी के बराबर वेतन एवं शक्तियाँ प्राप्त होंगी।
  • ग्राम न्यायालय सिविल (दीवानी) न्यायालय की शक्तियों को कुछ संशोधनों के साथ उपयोग करेगा एवं अधिनियम में जो विशेष प्रक्रिया का उल्लेख है, उसका अनुसरण करेगा।
  • ग्राम न्यायालय उक्त पक्षों के बीच के मामलों को समझौते के माध्यम से समाधान करने का प्रयास करेगा। इसके लिये मध्यस्थों की भी नियुक्ति करेगा।
  • सिविल (दीवानी) मामलों में अपील जिला न्यायालय में दाखिल होगी। सुनवाई व निस्तारण, अपील दाखिल होने के छह (6) माह के अन्दर किया जाएगा। आपराधिक (फौजदारी) मामलों में अपील सत्र न्यायालय में प्रस्तुत होगी। जिनकी सुनवाई व निस्तारण अपील दाखिल होने के छह (6) माह के अन्दर किया जाएगा।
  • एक आरोपित व्यक्ति अपराध दंड को कम या अधिक करने की अपील कर सकता है।

3. पंचायतीराज की सफलता के लिए आवश्यक शर्ते ? Necessary conditions for the success of Panchayati Raj ?

  • अनेक बार स्थानीय स्वशासन संस्थाएं सफलतापूर्वक कार्य नहीं कर पाती है। ये संस्थाएं जनता की सेवा करने के बजाय दलबन्दी, बेईमानी, आलसाजी, रिश्वत तथा झूठ का साधन बन जाती हैं। इसे प्रकार की बुराइयों पैदा होने का प्रमुख कारण यह होता है कि इन संस्थाओं की सफलता के लिए आवश्यक तत्त्व यहाँ विद्यमान नहीं होते हैं। इन संस्थाओं की सफलता के लिए निम्नलिखित परिस्थितियाँ आवश्यक कही जा सकती हैं ।
  • उच्च नैतिक चरित्र- स्थानीय स्वशासन की सफलता के लिए जनता में सदाचार, ईमानदारी तथा सार्वजनिक कर्त्तव्यों के प्रति उत्तरदायित्व की भावना होनी चाहिए। जनता को चाहिए कि वह सेवा और समझौते का मूल्य समझे तथा सार्वजनिक प्रश्नों पर एक दूसरे के विचारों का सम्मान करें। उनमें अपने पड़ोसी के हित के लिए सेवा की भावना विद्यमाने होनी चाहिए और सार्वजनिक प्रश्नों पर स्वतंत्र रूप से निर्णय करने की योग्यता होनी चाहिए।
  • स्वस्थ जनमत का निर्माण -जनता को चाहिए कि वह इन संस्थाओं की सदा ही रचनात्मक आलोचना करती रहे, जिससे कि संबंधित व्यक्ति सार्वजनिक क्षेत्र के कार्यों के प्रति उदासीन न हो जायें।
  • मत का उचित प्रयोग- चुनाव के समय जनता को प्रतिनिधियों की योग्यता और सार्वजनिक सेवा का भी ध्यान रखा जाना चाहिए और उनके द्वारा जातीय साम्प्रदायिक या धार्मिक भावनाओं के आधार पर अपने मत का प्रयोग नहीं किया जाना चाहिए।
  • प्रशासनिक नियंत्रण और स्थानीय स्वतंत्रता के बीच सामंजस्य -इस बात को तो सभी व्यक्ति स्वीकार करते हैं कि स्थानीय संस्थाओं पर किसी न किसी रूप में केन्द्रीय या प्रांतीय शासन का नियंत्रण होना चाहिए, जिससे ये संस्थाएं कुप्रबंध, धन के अपव्यय और शक्ति के दुरूपयोग से बची रहें। लेकिन इसके साथ ही केन्द्रीय या प्रांतीय सरकार द्वारा स्थानीय संस्थाओं के कार्य में कम से कम हस्तक्षेप किया जाना चाहिए। हस्तक्षेप केवल उसी दशा में किया जाना चाहिए, जबकि स्थानीय संस्था का प्रबंधन इतना दूषित हो जाये कि उसे सुधारने का और कोई उपाय शेष न रहे।
  • पर्याप्त वित्तीय साधन- ‘दाम बनाये काम’ यह एक पुरानी लोकोक्ति है, जो स्थानीय स्वशासन की संस्थाओं के लिए भी उचित सिद्ध होती है। इन स्थानीय स्वशासन संस्थाओं के पास पर्याप्त वित्तीय साधन होने पर ही इनके द्वारा सुचारू रूप से कार्य किया जा सकता है।
  • विशाल दृष्टिकोण – स्थानीय संस्थाओं से संबंधित व्यक्तियों का दृष्टिकोण विशाल होना चाहिए। उसमें व्यापक हितों की साधना के लिए छोटे स्वाथों का बलिदान करने की क्षमता होनी चाहिए।
Advertisement

Leave a comment