पृष्ठभूमि
मध्यप्रदेश में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और उसके कारण लार्ड डलहौजी के पश्चात फरवरी 1856 में लार्ड केनिंग भारत का गवर्नर-जनरल होकर आया। यद्यपि केनिंग अत्यंत शान्तिप्रिय और उदार शासक था, परन्तु उसे यहाँ आने पर आशा के विपरीत एक क्रान्ति या सिपाही विद्रोह का सामना करना पड़ा। जिस समय केनिंग भारत का गवर्नर-जनरल बनकर आया उस समय क्रानि या विद्रोह के कोई चिन्ह दृष्टिगोचर नहीं होते थे। चारों ओर शान्ति और सुव्यवस्था थी। भारत में अंग्रेजों की सार्वभौम सत्ता स्थापित हो चुकी थी और किसी भी देश राज्य का इतना साहस नहीं था जो ब्रिटिश कम्पनी के विरुद्ध सिर उठा सके अधिकांश बड़े देशी राज्यों में कम्पनी की सहायक सेनायें विद्यमान थीं, जो किस भी अराजकता को कुचलने में समर्थ थीं। कम्पनी की राज्य में सीमायें सुरक्षित थी। उत्तर-पश्चिम से किसी प्रकार की आपत्ति की तात्कालिक आशंका न थी क्योंकि उस ओर से राज्य को प्राकृतिक सीमायें प्राप्त हो गयी थीं। पूर्व की ओर बंगाल की खाड़ी के चारों ओर कम्पनी का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था और अपने सामुद्रिक शक्ति के कारण इस ओर से वह पूर्णतया निश्चित थी।
डलहौजी ने बड़ी चतुरता और शक्ति पूर्ण ढंग से देशी राज्यों का अपहरण किया था। सतारा, नागपुर तथा झाँसी को डलहौजी ने गोद-प्रथा निषेध के द्वारा कम्पनी के राज्य में मिला लिया था, जिसकी प्रतिक्रिया अन्य राज्यों पर उस समय नहीं हुई। अवध बड़ी शान्ति के साथ कम्पनी के राज्य में मिला लिया गया था। मैसूर का प्रशासन ब्रिटिश पदाधिकारियों के हाथ में था अतः वहाँ गड़बड़ी होने की कोई सम्भावना नहीं थी। पंजाब में योग्य और प्रतिभाशाली अंग्रेज पदासीन थे। जिन्होंने अपनी चतुरता से वहाँ पूर्ण शान्ति की स्थापना कर दी थी। सिक्खों को सेना में प्रवेश देकर सन्तुष्ट कर लिया गया था। देश के विभिन्न भागों में सड़कों तथा रेलों आदि के निर्माण कार्य प्रारम्भ हो गये थे।

इस प्रकार बाहर से देखने में चारों ओर शान्ति दृष्टिगोचर होती थी और कोई भी इस बात की कल्पना नहीं कर सकता था कि भारतवासियों के हृदय में कोई ऐसी अग्नि प्रज्ज्वलित हो रही है जो समय पाकर विकराल रूप धारण कर लेगी, श्री ताराचन्द के शब्दों में “डलहौजी के पद त्याग के समय तक भारत में ब्रिटिश राज्य अपनी चरम सीमा तक पहुँच चुका था। पश्चिम में यह सिंध नदी तक, पूर्व में इरावती तक और उत्तर में हिमालय से दक्षिण तक फैल चुका था। इस विशाल विजित भूखण्ड पर ब्रिटिश साम्राज्यवादी प्रतिभा ने एक ऐसी शासन पद्धति का निर्माण किया जिससे दो उद्देश्य सिद्ध होते थे। एक तरफ तो देश में 18वीं सदी में फैली हुई अराजकता का अन्त हो गया, जान और माल की सुरक्षा स्थापित हो गयी और भारत के निवासियों की राजनैतिक एकता का निर्माण हुआ। दूसरी तरफ अंग्रेजों ने अपने लिए एक ऐसे साम्राज्य की स्थापना की, जो विस्तार, ऐश्वर्य तथा साधनों की दृष्टि से अतुलनीय था और जिससे ब्रिटेन जैसे छोटे से टापू को संसार का प्रभुत्व प्राप्त हुआ।”
परन्तु यह सब तूफान से आने के पहले की शान्ति थी। कम्पनी के अधिकारी अपनी राजनैतिक सफलताओं में इतने मग्न हो गये थे कि उन्हें जनसाधारण के रोष का ध्यान नहीं था। उन्होंने अपने साम्राज्य की समस्याओं के समाधान का कभी प्रयास ही नहीं किया। कंपनी के डायरेक्टरों ने केनिंग को जो भोज दिया उसमें उन्होंने भाषण देते हुए कहा था कि “एक धनधान्य पूर्ण देश में 15 करोड़ लोग शान्ति और सन्तोष के साथ विदेशियों की सरकार के सामने घुटने टेके हुए हैं।” परन्तु साथ ही कैनिंग को कुछ आभास भी मिल गया था। अतः बाद में उन्होंने गम्भीरता के साथ कहा “हमें नहीं भूलना चाहिए कि भारत के आकाश में, यद्यपि वह इस समय बिल्कुल शान्त है, एक छोटा-सा बादल, जो एक मुट्ठी से बड़ा न हो, उठ सकता है, पर जो बढ़कर हमारा सर्वनाश कर सकता है।”
MP Patwari 2023 Result Out, Cut Off
मध्यप्रदेश में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के कारण
धर्म में नये परिवर्तन करना, नये कर लगाना, कानूनों और प्रथाओं में परिवर्तन, विशेषाधिकारों की समाप्ति, व्यापक दमन, अयोग्य व्यक्तियों की उन्नति, परदेशी, महँगाई, सेना से हटाये गये सैनिक, हताश राज्यविरोधी और लोगों को क्रुद्ध करने का कोई भी कारण जो उन्हें समान उद्देश्य से संगठित कर देता है आदि स्वतंत्रता संग्राम के कारण रहे हैं।]
(1) राजा-महाराजाओं को पदच्युत करना–
राजा-महाराजाओं के विशेषाधिकार समाप्त किये गये थे और ऐतिहासिक राजवंशों का उच्छेदन किया गया था। पूर्व शासकों की विघटित सेनाओं के हजारों सैनिक बिना धंधे देश में इधर-उधर घूमते-फिरते थे। नये कानूनों और नये करों ने निर्धन हुई जनता को भारी बोझ के नीचे दबा दिया था। विजय तथा व्यपगमन (लैप्स) के सिद्धान्त के द्वारा अंग्रेजी राज्य में मिला लिए गये विस्तृत प्रदेशों में जो भूमि का बंदोबस्त किया गया था, उसमें क्रूरता की पराकाष्ठा थी। अवध के राज्य में, नागपुर के प्रदेश में • और बुंदेलखण्ड में विशाल संख्या में राजाओं और जमींदारों को अधिकारच्युत किया गया था। उदाहरणार्थ डलहौजी द्वारा भूस्वामियों के स्वत्वाधिकारों की जाँच करने के लिए नियुक्त किये “इनाम कमीशन की कार्यवाहियों के परिणामस्वरूप केवल बंबई महाप्रांत में ही 20 हजार भूमि-खंड राजसात किये गये थे। इस कारण संपूर्ण देश में अधिकारच्युत तालुकेदारों और जमींदारों के हृदयों में वास्तविक परिवेदना पनप रही थी। अंग्रेजों के कुछ नये स्थापित कार्यालय और प्रशासन जनता के लिए इतने घृणास्पद हो गये थे कि पटना शैक्षणिक निरीक्षण के कार्यालय का नाम जनता में शैतानी दफ्तर’ प्रचलित हो गया था।
मध्यप्रदेश का इतिहास (सिंधिया वंश) MP History
(2) धर्म परिवर्तन–
कुछ सामाजिक कानूनों ने भी जिन्हें डलहौजी ने लागू किया था, जनता के मस्तिष्कों में व्यापक अशांति और संदेह की स्थिति उत्पन्न कर दी थी। सन् 1856 के हिन्दू विधवा पुनर्विवाह अधिनियम ने तथा ईसाई पादरियों की धर्मपरिवर्तन की आक्रामक कार्यवाहियों के साथ-साथ सन् 1850 के धार्मिक अयोग्यता अधिनियम ने जिसके द्वारा अन्य धर्मपरिवर्तन करने वाले हिन्दुओं के सामाजिक अधिकारों को सुरक्षित किया गया था, जनमानस में यह भय उत्पन्न कर दिया कि सरकार देश के समाज गठन और परंपराओं को समाप्त करने तथा भारत को ईसाई बनाने पर तुल गई है।
(3) सामाजिक परिवर्तन-
सती प्रथा समाप्त करने जैसे कुछ सुधारों से भी उन लोगों में विश्वास उत्पन्न होना अनुमान बाह्य था जिन्हें यह संदेह था विदेशी शासन निकट भविष्य में ही परंपरागत धार्मिक एवं सामाजिक संस्थाओं का ‘उन्मूलन कर सकता है। अंग्रेज विजेताओं ने भारत के अन्य पूर्वकालीन आक्रांताओं के विपरीत न केवल अपने आपको देश के जीवन एवं जनता से अलग रखा वरन वे देश के जीवन एवं जनता की मौलिक परंपराओं को छिन्नभिन्न करने के लिए। योजनापूर्वक प्रवृत्त हुए। अंग्रेज आक्रांतों ने यह अनुभव नहीं किया कि वह एक ऐसे । देश में प्रवेश कर रहा है जिसके जीवन में उसके अपने देश की संस्कृति से कहीं अधिक प्राचीन अत्यंत विकसित संस्कृति व्याप्त है। उस देश की पृष्ठभूमि से अनभिज्ञ, जिसमें उसने प्रवेश किया था, अपनी संस्कृति के अहंकार में भरा हुआ वह उस प्रत्येक वस्तु को, जिसे समझने की उसमें क्षमता नहीं थी, आँख मूँदकर ठुकराता हुआ इधर-उधर घूमने लगा। परिणाम यह हुआ कि सर्वत्र विरोध की व्यापक भावना उत्पन्न हो गई जो इन शासकों की अत्यधिक शक्ति से अत्यंत आतंकित होने के कारण कुछ समय तक अप्रकट
Hindi Granth Academy Books PDF Downlod
(4) आर्थिक नीति–
जिन्हें सबसे अधिक आघात लगा था वे स्वभावतः उन वर्गों में से थे जिनके पास खाने के लिए अधिक था- शासक और भूस्वामी वर्ग । सर्वसाधारण का विशाल जनसमूह भी उस समय विदेशी राज्य का भार अनुभव करने लगा, विशेष रूप से जब भूमिकर की माँग पचगुनी और अठगुनी तक बढ़ने लगी तथा इंग्लैण्ड से आयात की गई वस्तुओं की प्रतिस्पर्धा में शिल्प और उद्योग का ह्यास होना आरंभ हुआ। देश की समाज रचना का गठन इस प्रकार था कि नेतृत्व की प्रेरणा के लिए तथा प्रतिरोध के किसी भी आंदोलन का उत्तरदायित्व ग्रहण करने के लिए सामंतवर्ग में से ही नेताओं को आगे आना पड़ता था। लोग उनसे पथप्रदर्शन की अपेक्षा रखते थे और उनके नेतृत्व में चलने का उन्हें परम्परागत अभ्यास था। अतः भारतवर्ष की स्वतंत्रता की स्थापना करने के अभियान के पहले प्रवाह ने अपरिहार्य रूप में सामंतों के नेतृत्व में किये गये संघर्ष का रूप धारण किया। अधिकारच्युत हुए श्रीमंतों द्वारा किए गये संघर्ष के रूप को चाहे पुरातनवादी तत्वों द्वारा किया गया संघर्ष कहें परंतु वे लोग देश में प्रचलित व्यवस्था के संरक्षण से किसी प्रकार कम नहीं थे, जैसा कि सरदार पणिक्कर ने लिखा है-
यह सत्य है कि विद्रोह के सभी नेता अधिकारच्युत हुए श्रीमंतवर्ग के थे किंतु वे सब अपने दृष्टिगत एक ही उद्देश्य अंग्रेजों को निकाल भगाने और राष्ट्रीय स्वाधीनता की पुनः स्थापना करने के अधिकार पर संगठित थे। इस अर्थ में यह विद्रोह, विद्रोह कदापि नहीं था, वरन् महान् राष्ट्रीय क्रान्ति था ।
(5) डलहौजी की नीति –
डलहौजी की नीति और मध्य भारत में अंतिम अवशिष्ट पेशवा बाजीराव द्वितीय का जो बिठूर में निर्वासित का जीवन बिता रहा था। 14 जनवरी, 1851 को देहांत हुआ। डलहौजी ने 8 लाख रुपया वार्षिक की उनकी वह पेंशन तत्काल बंद कर दी जिसके संबंध में स्वर्गीय पेशवा के दत्तक पुत्र नाना साहेब का यह अनुभव करना उचित ही था कि वह उसे मिलती रहनी चाहिए थी।
पेंशन को फिर से चालू करने के प्रयासों का अंत असफलता में हुआ और नाना साहेब का वकील अजीमुल्ला खाँ जो कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के सामने उनके
प्रकरण में पक्षसमर्थन के लिए इंग्लैण्ड गया था, निराश होकर लौट आया। नाना साहेब ने अनुभव किया कि न्याय प्राप्त करने का एकमात्र मार्ग अंग्रेजी राज्य को उखाड़ फेंकना था। अजी मुल्ला खाँ, अपनी दैनंदिनी में कहता है कि जैसे ही वह इंग्लैण्ड से लौटा नाना साहेब अंग्रेजों से युद्ध करने की योजना पर अन्य राज्यों और जमींदारों से परामर्श करने के लिये उत्तर भारत की लम्बी यात्रा पर निकल पड़े
वे लखनऊ के नवाब के यहाँ ठहरे और फिर तीर्थयात्री के वेश में अवध, बुदेलखण्ड तथा मध्यभारत के कुछ नेताओं से जाकर मिले। वे सेना के सम्पर्क में भी आये। विशेष रूप से तथाकथित बंगाल आर्मी के, और उन्हें ज्ञात हुआ कि उनमें विद्रोह की भावना व्यापक रूप से प्रबल है। सेनाओं के समुद्र पार के देशों में लड़ने जान के लिए नये नियमों ने और हाल ही चलाये गये बचत के अभियानों ने देशी सेना की कुछ इकाइयों में ईस्ट इंडिया कम्पनी के प्रति द्रोह के भाव उत्पन्न कर दिये थे। इस प्रकार सन् 1857 के कुछ वर्ष पूर्व कुछ महत्वपूर्ण रेजिमेंटों में असंतोष एवं अधिकारियों की अवहेलना की भावना पहले ही व्यापक रूप से फैल चुकी थी। इन परिस्थितियों में नाना साहेब तथा अन्य नेताओं को अत्यधिक आशान्वित किया। क्योंकि सरकार के विरुद्ध सशस्त्र विद्रोह केवल सेना की सहायता से ही संभव था।
(6) हड़प नीति–
नागपुर और सतारा को अंग्रेजी राज्य में मिलाने के बाद इन राज्यों में पारिवारिक संबंध और संपर्क के सूत्र में बँधा हुआ एक और ऐतिहासिक राज्य डलहौजी के सर्वग्रासी हाथों में पड़ा। झाँसी के राजा गंगाधरराव का 21 नवंबर, 1853 को देहांत हो गया और वे अपने पीछे अपना अल्पायु राजकुमार छोड़ गये, जिसे उनने पोलिटिकल एजेंट मेजर एलिस तथा कमाउ मेजर मार्टन की उपस्थिति में लोकाचार एवं विधिपूर्वक दत्तक ग्रहण किया था। अपने पीछे वे LPराज्य की संरक्षिका के रूप में वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई को छोड़ गये। राज्याधिकार छिन जाने पर उनने अपने आपको राजमहल में सीमित का लिया तथा वहाँ अपना दाय पुनः प्राप्त करने का उपाय सोचने में वे संलग्न हु उन्होंने घोड़े की सवारी, तलवार चलाने और बंदूक चलाने का अभ्यास किया तथ इस सब कलाओं में अत्यधिक कुशलता प्राप्त कर ली। जब नाना साहेब ने अपन संदेशवाहक भारतीय राजाओं-महाराजाओं के पास उनका मंतव्य जानने के लि भेजना प्रारंभ किए उन्हें झाँसी की रानी के रूप में एक वीर नेता मिल गया, जिसक पास अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करने के लिए कारण, निश्चय और औचित्य भी था नाना साहेब और रानी लक्ष्मीबाई वस्तुतः बचपन से ही मित्र और हमजोली थे। उन बालपन का एक और साथी तात्या टोपे था।
पहली चिन्गारी नागपुर में न सुलगकर सुदूर मेरठ में दहक उठी। विद्रोह के कारण के रूप में “चर्बी लगे कारतूसों की बहुत चर्चा की गई है। किंतु वस्तुस्थिति यह प्रतीत होती है कि कारतूसों की घटना ने “केवल उसके सांगोपांग रूप में संगठित होने और लोकव्यापी विप्लव की पहली सीढ़ी बनाये जाने के हेतु पर्याप्त व्यवस्था किये जाने के पूर्व ही विप्लव को प्रारंभ कर दिया। कई वर्षों से तूफान के बादल दृढ़गति से एकत्र हो रहे थे। उस चेतावनी के अतिरिक्त जो स्लीमैन ने डलहौजी को दी थी कि “अवध का अंग्रेजी राज्य में मिलाया जाना अंग्रेजी सत्ता को उस जैसे दस राज्यों से भी अधिक महँगा है। सूक्ष्मदर्शी अंग्रेज स्वयं भी यह अनुभव करते थे कि भारत के प्रत्यक्षतः शांत दिखने वाले वातावरण की तल में गंभीर अशांति पनप रही है। सर चार्ल्स मेटकफ ने स्वीकार किया था, “मुझे यह संभावना दिखती है कि किसी दिन जब मैं सबसे जागूँगा तो मुझे भारत अंग्रेजी साम्राज्य से निकला हुआ मिलेगा।” लॉर्ड केनिंग को, जो दुर्भाग्य से इस महान क्रान्ति के घातक वर्ष में भारत के अंग्रेज अधिकृत प्रदेशों का सर्वोच्च अधिकारी था, अपने इंग्लैण्ड से प्रस्थान करने से पहले ही यह पूर्वाभास हो गया था कि “उसने भारतरूपी आकाश में, जो स्वच्छ दिखाई देता है, एक छोटा-सा मेघखंड देखा, जो प्रारंभ में मनुष्य के हाथ से बड़ा नहीं है किन्तु विस्तृत और विस्तृततर होते हुए जो अंत में घुनघोर रूप में फटकर हमें विनाश से अभिभूत कर सकता है।”
यातायात के साधानों के विकास–
यातायात के साधनों के विकास का एक परिणाम हुआ समाचार-पत्रों का जन्म प्रारंभ में यद्यपि इनका उद्देश्य अंग्रेज समाज की अपनी मातृभूमि तथा शासकीय घटनाओं के समाचार देना था। पर समय व्यतीत होने के साथ-साथ समाचार-पत्र लोकमत के प्रवक्ता के रूप में विकसित हुए। सन् 1935 में जब बेंटिक के त्यागपत्र और ऑकलैंड की नियुक्ति के बीच के काल में मेंटकॉफ गवर्नर जनरल के रूप में कार्य कर रहा था तब उसने समाचार-पत्रों पर नियंत्रण के सारे कानूनी बंधन उठा लिए। उस समय ऐसे अनेक अंग्रेज अधिकारी थे जिनने इसे बुद्धिविहीन कदम समझा। लगभग दस वर्ष पहले सर थॉमस मुनरो ने यह गंभीरता से कहा था कि स्वतंत्र समाचार-पत्रों का पहला धर्म क्या है ? यह है देश को विदेशी जुए से मुक्त करना।” किंतु उदार नीति की भावनाओं से ओतप्रोत मेटकॉफ का यह दृढ़ विश्वास था कि “लोकमत को दबाने के प्रयासों की अवश्यंभावी असफलता के कारण अधिक दिन स्थित नहीं रह सकता था।” समाचार-पत्र अधिनियम की समाप्ति ने भारतीय समाचार-पत्रों के विकास को प्रगति दी और वे शीघ्र ही सार्वजनिक प्रश्नों पर विचार-विमर्श करने के साधन बन गये। उदाहरणार्थं सन् 1853 में प्रारंभ हुये “दि हिंदू पेट्रियाटटू” ने डलहौजी द्वारा देशी राज्यों के अंग्रेजी राज्य में मिलाये जाने की दृढ़तापूर्वक आलोचना की। उन कारणों में जिनके परिणामस्वरूप सन् 1857 का विद्रोह हुआ, नये प्रारंभ हुए समाचार-पत्रों की गणना शक्तिशाली तत्व के रूप में की जानी चाहिए। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं कि केनिंग को सन् 1857-58 में समाचार-पत्रों पर दुबारा नियंत्रण लगाना आवश्यक ज्ञात हुआ ।