मध्यप्रदेश में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम के घटना और परिणाम

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घटना और परिणाम

मध्यप्रदेश में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम के घटना ओर परिणाम उन्नीसवीं सदी की पहली तिहाई में दम तोड़ती मराठा ताकत और अंग्रेजों के बीच हुए आखिरी संघर्ष के बाद मराठा राज्य संघ ने सेन्ट्रल इंडिया में ईस्ट इण्डिया कम्पनी की बढ़ती ताकत के सामने घुटने टेक दिये। इस क्षेत्र को अब मध्य भारत कहते हैं, जिसका 1 नवम्बर, 1956 में मध्यप्रदेश में विलय हुआ है। इसके बाद कम्पनी ने मध्य भारत के देशी राजाओं के साथ संधियाँ कीं और उन्हें कम्पनी की सरकार के अधीन कर लिया। उन्हें कम्पनी के सीधे कार्यकारी एवं नियंत्रणात्मक | अधिकार में लाने के लिए इस पूरे क्षेत्र को ब्रिटिश रेजीडेन्सी के तहत सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी बना दिया गया, जिसे गवर्नर जनरल का एजेन्ट कहा गया। वह एजेन्सी के मुख्यालय इंदौर में रहता था। सन् 1857 में इन्दौर, ग्वालियर, धार देवास, रीवा, ओरछा, बड़वानी आदि जैसे राज्यों तथा बहुत सारी सरदारियों को इस एजेन्सी के कार्यक्षेत्र में मिला लिया गया। उस समय इसका क्षेत्रफल करीब 86,000 वर्गमील तथा आबादी लगभग अस्सी लाख थी। इस क्षेत्र पर अपने इस अधिकार और नियंत्रण के लिए अंग्रेजों ने महू, नीमच, मुरार, सीहोर, आगर महिदपुर, गुना, शिवपुरी आदि में अपनी सैनिक छावनियाँ बना लीं।

मध्यप्रदेश में 1857 का स्वतंत्रता संग्राम और उसके कारण

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अँग्रेजी हुकूमत के भारत में तेजी से फैलाव और उसके बाद प्रशासनिक व्यवस्था तथा रोजमर्रा की जिन्दगी में आये तूफानी बदलावों की वजह से पूरे देश में अभूतपूर्व खलबली मच गयी, जिसकी परिणति 1857 के विद्रोह में हुई। कुछ आधुनिक लेखकों ने इसे हमारे आजादी के आंदोलन का पहला चरण कहा है। बंगाल के बहरामपुर और बेरकपुर में इस पहले विद्रोह के अनेक कारण थे- राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और सैनिक। इसके बाद 10 मई, 1857 को ईस्ट इण्डिया कम्पनी के भारतीय सिपाहियों ने मेरठ में खुला विद्रोह कर दिया। वे जेलों में घुस गये और अपने साथियों को आजाद करा एवं कुछ यूरोपियन अधिकारियों को मारकर अगली सुबह दिल्ली भाग गये। वहाँ उन्होंने अँग्रेजों से सत्ता छीनकर बूढ़े मुगल बादशाह, बहादुरशाह जफर-II को हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया। इसके बाद बरेली कानपुर, लखनऊ, बनारस, इलाहाबाद, नसीराबाद, मध्यप्रदेश आदि में विद्रोह हुए। मध्य भारत भला इस प्रचंड विप्लव का मूकदर्शक कैसे बना रह सकता था ? इस क्षेत्र के सिपाही और उनके अफसर, कुछ राजा तथा लोग इस देशव्यापी विप्लव में कूद पड़े। 25 अप्रैल, 1857 को इंदौर में गवर्नर जनरल के एजेन्ट हैनरी डूरण्ड को खबर मिली कि बनारस स्थित सैंतीसव नेटिव इन्फेन्ट्री का एक सिपाही रीवा में सिपाहियों तथा रीवा दरबार के लिए संदेश लाया है कि वे अँग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दें। इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि यह सिपाही उन अनेक गुप्त संदेशवाहकों में से एक था, जिन्हें देशी राज्यों तथा ब्रिटिश क्षेत्रों की फौजों तथा दरबारों के पास यह संदेश लेकर भेजा गया था कि वे स्वयं को संगठित करें और अंग्रेजों के अधिकारियों के खिलाफ हथियार उठायें। जब एक तारा टूटेगा। यह गुप्त नारा सिपाहियों को विद्रोह के लिए संकेत था। लिहाजा, महू में ठहरे सिपाहियों ने मई के दूसरे सप्ताह में इंदौर रेजीडेन्सी पर हमला करने का फैसला किया और इंदौर में होल्कर की फौज को अपने साथ मिल जाने के लिए गुपचुप बातचीत की। इंदौर शहर तथा रेजीडेन्सी 15 से 20 मई तक बेहद चौकन्ने थे और किसी भी दिन विद्रोह भड़कने की संभावना थी। लेकिन इंदौर में अँग्रेजों की नयी फौज आ जाने से सिपाही विद्रोह की अपनी योजना को अमल में नहीं ला सके। बहरहाल, नीमच स्थित पैदल और घुड़सवार सैनिक इकाइयों ने मौके का फायदा उठाकर 3 जून को रात नौ बजे एकत्र होकर मध्य भारत में विद्रोह की पहली गोली चलायी। उन्होंने छावनी का बंगला आग के हवाले कर नीमच के किले को कब्जे मे लेने की कोशिश की। उनमें से कुछ लोग एक फौज के साथ दिल्ली भी गये। उदयपुर स्थित मेवाड़ के ब्रिटिश रेजीडेन्ट कर्नल सी.एल. शॉवर्स को जब यह खबर लगी तो उसने कुछ राजपूत सिपाहियों के साथ महू कूच किया और नीमच के किले पर अधिकार कर लिया। नीमच से कुछ मील दूर प्राचीनयुक्त नीमबहेड़ा शहर भी विद्रोहियों की मदद कर रहा था और उनसे हमदर्दी रखता था। यह शहर अंग्रेजों को उत्तर भारत के साथ संचार व्यवस्था में काफी बाधा बन रहा था। लिहाजा, कर्नल शॉवर्स ने नीमबहेड़ा पर हमला कर दिया और उसे घेर कर उस पर बमबारी की लेकिन नीमच उसके लिए टेड़ी खीर बना रहा। मंदसौर, महिदपुर और अन्य जगहों से विद्रोही सिपाही नीमच आये और उन्होंने नीमच के किले को घेर लिया। अंग्रेजों की रक्षक सेना ने बहादुरी के साथ किले की रक्षा की और विद्रोहियों को खदेड़ दिया।

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14 जून, 1857 को मुरार स्थित ग्वालियर छावनी के सिपाहियों ने रात नौ बजे विद्रोह का झण्डा ऊँचा कर दिया। उन्होंने ग्वालियर और शिवपुरी के बीच टेलीग्राफ लाइनों को काट दिया और संचार की मुख्य लाइन बाम्बे-आगरा रोड को खतरे में डाल दिया। सिंधिया महाराज की राजधानी ग्वालियर विद्रोहियों के हाथों में थी। अँग्रेज अफसर, महिलाएँ और बच्चे ग्वालियर के शासक की मदद से आगरा चले गये।

20 जून को सिपाहियों ने शिवपुरी में विद्रोह कर दिया और शिवपुरी के अँग्रेज अफसर गुना में ठहरे अफसरों से जा मिले। जब गुना की टुकड़ी ने विद्रोह किया, तब कैप्टन हेरीसन गुना से भाग गया और उसने इंदौर में रुकने की सोची लेकिन उसे इंदौर से 120 मील उत्तर में ब्यावरा में अपनी फौज को रोकने का हुक्म हुआ। उसे आदेश मिला कि वह वहीं से टेलीग्राम के जरिये संवाद कायम रखे। इस बीच सेन्ट्रल इण्डिया एजेन्सी में बुन्देलखंड के स्थानीय सिपाहियों ने भी बगावत कर दी और उनका विद्रोह खतरनाक होता जा रहा था

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विद्रोह की लपटें दक्षिणी मध्य भारत में फैल गयीं। इंदौर और महू के सिपाही जून से ही योजना बनाये बैठे थे कि बगावत करके इंदौर रेसीडेन्सी और महू छावनी को तहस-नहस कर देंगे। इंदौर और महू के बीच गुप्त संदेशवाहक भेजे गये। महू के कर्नल प्लाट ने एक संदेशवाहक को पकड़ लिया और उसे इंदौर में कर्नल डूरण्ड के हवाले कर दिया। डूरण्ड के रक्षा उपायों तथा कर्नल स्टॉकले और ट्रेवर्स, कैप्टन लुडलों तथा कोब्बो के अपनी टुकड़ियों के साथ इंदौर में मौजूद होने के बावजूद सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया और 1 जुलाई, 1857 को सुबह 8 से 8:30 बजे के बीच सआदत खान और भागीरथ सिलावट के नेतृत्व में होल्कर की फौज ने इंदौर रेजीडेन्सी पर हमला बोल दिया। उन्हें महाराजा होल्कर का अप्रत्यक्ष समर्थन और सहयोग प्राप्त था। महाराजा ने घोषणा कर दी कि उनकी फौज उनके काबू बाहर हो गयी। लिहाजा, रेजीडेन्सी कोठी के सामने अँग्रेज फौज और होल्कर की से फौज के बीच लड़ाई हुई। अँग्रेज अफसरों ने कुछ वफादार सिपाहियों के साथ हमले का मुकाबला किया, लेकिन वे नाकाम रहे। इस लड़ाई में बीस अंग्रेज अफसर मारे गये। फौज के साथ- साथ इंदौर शहर भी अंग्रेजों के खिलाफ भड़क उठा और अनेक नागरिकों ने अंग्रेज छावनी और खजाने की लूट में हिस्सा लिया।

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विद्रोही सिपाहियों को तेरह लाख मिले। ब्रिटिश रेजीडेन्ट, डूरण्ड, बचे हुए अंग्रेज पुरुषों, महिलाओं तथा बच्चों के साथ सीहोर चला गया। वहाँ उसकी मदद भोपाल की सिकंदर बेगम ने की। उसने सीहोर में विद्रोह को कुचल दिया। सीहोर से डूड होशंगाबाद गया और अगस्त में महू लौट गया।

नीमच, इंदौर तथा महू में बगावत की खबर जंगल की आग की तरह फैल गयी और संभवतः 2 और 3 जुलाई को धार, अमझेरा, सरदारपुर तथा आसपास के क्षेत्रों में सैनिकों ने अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिये अमझेरा के राणा बख्तावर सिंह ने भोपवार में अंग्रेज छावनी पर हमला कर उसे तबाह कर दिया। अँग्रेज अफसर भागकर झाबुआ पहुँचे, जहाँ झाबुआ के राजपूत शासक ने उन्हें अपने महल में शरण दी। बख्तावर सिंह को बाद में अंग्रेज अधिकारियों ने गिरफ्तार कर फाँसी पर चढ़ा दिया

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धार के बागी सिपाहियों में धुरंधर लड़ाके विलायती और मेवाती वीर भी शामिल थे। उन्होंने धार के मजबूत किले पर कब्जा कर लिया। अब उनकी मंदसौर के विद्रोही सिपाहियों से सीधी बात होती थी और उन्होंने बाम्बे आगरा रोड, जो अंग्रेजों का मुख्य संचार साधन था, को खतरे में डाल दिया। इस बात पर भरोसा किया जा सकता है कि धार के दीवान ने विद्रोहियों को प्रोत्साहित किया और मदद की। उन्होंने किले में मौजूद हथियारों तथा बारूद को अपने कब्जे में ले लिया।

जब इंदौर, महू और धार में विद्रोही सैनिकों की तादात बढ़ रही थी, उस समय दिल्ली के शाही मुगल खानदान का शहजादा हुमायूँ मंदसौर पहुँचा, जो इंदौर से 125 मील दूर था। सिंधिया की फौजों के कुछ मेवाती और विलायती लोग उससे जा मिले और उसने अगस्त में मंदसौर में अपनी स्वतंत्र हुकूमत कायम कर ली और अपना नाम फिरोजशाह रख लिया। उसने पूर्ण प्रभुसत्ता हासिल कर ली और 20 हजार की सेना खड़ी करके आसपास के राजकुमारों तथा सरदारों के पास दूत भेजकर संदेश दिया कि वे उसे आदमी और पैसा दें ताकि अंग्रेजों से लड़ा जा सके। वह अंग्रेजों के कब्जे वाले इलाकों को जीतने की धमकी दे रहा था उसने नीमच के किले की घेराबंदी कर उसे अंग्रेजों से मुक्त कराने के लिए अपनी फौज की एक टुकड़ी भेजी।

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इस बीच, बिठूर में नाना पेशवाशाही की घोषणा की खबर मालवा पहुँच चुकी थी अंग्रेजों के खिलाफ उथल-पुथल मचाने के लिए उनके एजेन्ट मध्य भारत स्थित मराठा राजधानियों में आ चुके थे। उस वक्त डूरण्ड ने कहा था मराठा देश के ग्वालियर से दक्षिण की ओर विशाल क्षेत्र में पेशवा के उत्कर्ष की बेचैनी से प्रतीक्षा की जा रही थी। निमाड़ में किराये के सैनिकों, विलायतियों की एक सेना ने मण्डलेश्वर में अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिये और अंग्रेजों की हालत पतली कर दी। संधवा और बड़वानी में भीमा नायक के नेतृत्व में वहाँ के मूल निवासियों ने अंग्रेजों के खिलाफ बगावत कर दी और सेंधवा मार्ग को खतरे में डाल दिया। जब उसके बगावती तेवर काफी तीखे हो गये, तो उसकी ताकत को दबाने के लिए एक छोटी अंग्रेजी फौज भेजी गयी। भीमा पर आक्रमण कर उन्हें उम्र कैद की सजा देकर अण्डमान द्वीप समूह भेज दिया गया।

उज्जैन से चालीस मील दूर आगर में ब्रिटिश अफसर, कुछ दूध वालों की मदद से भाग निकले और बमुश्किल सीहोर पहुँचे । आगर से कुछ मील दूर महिदपुर

छावनी में भी 8 नवम्बर को बगावत हो गयी। वहाँ मालवा टुकड़ी ने छावनी पर धावा बोल दिया, बंगलों को आग लगा दी, विद्रोह को दबाने की अंग्रेजों की कोशिशों को नाकाम किया और बड़ी मात्रा में बारूद और कुछ तोपें मंदसौर ले गये। मंदसौर के रास्ते में, जावरा के पास रावल में उनकी झड़प मेजर ओर के नेतृत्व वाली छोटी अंग्रेज फौज से हुई। यह बहदवासी से लड़ी गयी हाथापाई की लड़ाई थी। महिदपुर द्रोह में वहाँ के अमीन (तहसीलदार) ने गौरवशाली भूमिका निभाई। उसने वहाँ इस मकसद के लिए बड़ी तादाद में सिपाहियों को भर्ती किया और विद्रोह में उनकी काफी मदद की। लेकिन बाद में उसे इसके लिए फाँसी दी गयी।

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इस प्रकार, जून से सितम्बर, 1857 तक मध्य भारत के सभी सैनिक ठिकानों तथा छावनियों में विद्रोह हुआ। सिपाही, अंग्रेजों के खिलाफ उठ खड़े हुए। उन्होंने अपने कुछ अफसरों को गोली मार दी या उन्हें सामूहिक रूप कत्ल कर दिया. उनके बंगलों को आग के हवाले कर दिया और उनकी सम्पत्ति को लूटा। वे बड़ी तादात में हथियार और गोला बारूद भी लूटकर अपने साथ ले गये जहाँ उनमें से बड़ी संख्या में ये विद्रोही दिल्ली चले गये। वहीं कुछ धार और मंदसौर में इकट्ठे हो गये, जिससे उनकी संख्या बढ़ गई। कई जगहों पर लोगों, राजाओं ने विद्रोहियों को पैसा और रसद देकर मदद की। उनकी बढ़ती ताकत पर काबू पाने के लिए ब्रिगेडियर स्टुअर्ट के नेतृत्व में बम्बई से एक मजबूत फोज भेजी गयी। यह फौज महू आ गयी और बरसात का मौसम खत्म होने तक वहीं रही।

यह फौज 22 अक्टूबर को धार की ओर रवाना हुई और इसने वहाँ किले को घेर लिया। नियमित घेराबंदी शुरू हो गयी। घिरे हुए सेनानियों ने बहुत बहादुरी से किले की रक्षा की। उन्होंने जावरा के नवाब, मंदसौर के फिरोजशाह और इंदौर के होल्कर राज्य के अफसरों से मदद के लिए गुहार लगाई, लेकिन व्यर्थ अंग्रेजी फौज को गढ़ी में घुसने तथा इसकी प्राचीर को तोड़ने में कामयाबी मिल गई। बचाव का कोई रास्ता दिखाई न देने पर सेनानी, अंग्रेजों के किले में प्रवेश के पहले ही कुछ भाग निकले। आखिर में वे मंदसौर के फिरोजशाह की फौज में जा मिले। धार में विद्रोह के परिणामस्वरूप, अंग्रेजों ने धार स्टेट को हड़प लिया, लेकिन बाद में पवार वंश को इसे वापस कर दिया। धार पर कब्जा करने के बाद अंग्रेजी फौज की एक टुकड़ी अमझेरा भेजी गयी। इस पर उन्होंने आसानी से कब्जा कर लिया, क्योंकि सिपाही पहले ही मंदसौर जा चुके थे।

अब, स्टुअर्ट के नेतृत्व वाली अंग्रेजी फौज चम्बल की ओर बढ़ी। इसने 19 और 20 नवम्बर को चम्बल नदी पार की और नदी किनारे बंदूकें दागते। हुए विद्रोही सिपाहियों को पकड़ लिया। 23 तारीख को यह मंदसौर से गुजरी और अगले ही दिन मंदसौर से तीन मील दूर गुरइया गाँव में फिरोजशाह और अंग्रेजों की फौजों में घमासान लड़ाई हुई। यह लड़ाई दो दिन चली। फिरोजशाह की फौज हारकर बिखर गई। स्वतंत्रता सेनानियों के लिए यह एक बड़ा आघात था। फिरोजशाह ने मंदसौर छोड़ दिया, जिस पर डूरण्ड ने अधिकार कर लिया।

सेनानियों की बची-खुची ताकत को खत्म करने के लिए कुछ घुड़सवारों को मंदसौर में छोड़कर अंग्रेज की फौज उज्जैन होते हुए होल्कर की फौज से निपटने इंदौर गई। डूरण्ड 15 दिसम्बर को इंदौर पहुँचा। होल्कर की फौज निहत्थी और बिखरी हुई थी। लिहाजा, विद्रोहियों ने हथियार डाल दिये। 16 और 17 दिसम्बर, 1857 को इंदौर में स्थायी ए.जी. जी. (एजेन्ट ऑफ गवर्नर जनरल) सर रॉबर्ट हेमिल्टन इंदौर आ चुके थे। हेमिल्टन ने प्रभार लेकर डूरण्ड को कार्यमुक्त किया. जबकि अन्य अँग्रेज अधिकारी ह्यूरोज ने विन्ध्य प्रदेश और सागर तथा जबलपुर क्षेत्र में सेनानियों का सामना करने की तैयारी की।

एक बहादुर मराठा ब्राह्मण, तात्या टोपे ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में नाना साहब पेशवा से हाथ मिला लिया था। सेनानियों को तात्या टोपे के रूप में एक. योग्य नेता मिल गया। विद्रोही ग्वालियर टुकड़ी और अन्य विद्रोही पेशवा और तात्या टोपे के साथ हो लिये। हालाँकि 6 दिसम्बर, 1857 को तात्या टोपे सर कॉलिन केम्पबेल के हाथों पराजित हो गये, लेकिन उन्होंने उत्तरी मध्य भारत में अंग्रेजों के खिलाफ अपनी गतिविधियाँ जारी रखी।

इस बीच, जनवरी 1858 में सर ह्यूरोज अपने आधार स्थल महू से कूच कर सागर पहुँचा। जहाँ उसने अंग्रेज रक्षक सेना को मुक्त किया, बुन्देलखंड में विद्रोहियों के खिलाफ कामयाब मुहिम चलाई और झाँसी को घेर लिया। झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई ने बहादुरी से अपने दुर्ग की रक्षा की। लेकिन बेहद ताकतवर फिरंगी फौज से दुर्ग को बचाने का कोई उपाय न रहने पर उन्होंने 4 अप्रैल, 1857 की रात को झाँसी छोड़ दी। अपने साथियों के साथ वह कालपी गई और तात्या टोपे से जा मिली। लेकिन ह्यूरोज ने उनका पीछा कर 22 मई को काल्पी में दोनों को हरा दिया। हिम्मत न हारकर रानी और तात्या टोपे ग्वालियर की ओर बढ़े। उन्होंने सिंधिया की फौज को हराकर ग्वालियर के किले पर कब्जा कर लिया। महाराज सिंधिया ग्वालियर से आगरा चले गये। ग्वालियर में रानी अथवा पेशवा के अंतर्गत मराठा शक्ति की स्थापना के खतरे को समझकर, सर ह्यूरोज ने ग्वालियर पर हमला कर दिया। घमासान युद्ध हुआ । मर्दाने भेष में झाँसी की रानी ने अंग्रेजों के दाँत खट्टे कर दिये, लेकिन जीत अंग्रेजों की हुई। रानी गंभीर रूप से घायल हो गई और 18 जून, 1858 को स्वर्ग सिधार गई। उनका अंतिम संस्कार ग्वालियर किले के पास किया गया। तात्या टोपे अपने कुछ फौजियों के साथ मध्य भारत तथा राजस्थान के कुछ भागों में सैनिक धन तथा सामान जुटाने भटक रहे थे, ताकि अंग्रेजों से मुकाबला किया जा सके। लेकिन अंग्रेज उनका लगातार पीछा करते रहे, लेकिन ५ दिन उनके मित्र मंगलसिंह ने उनके साथ धोखा किया, जो ग्वालियर राज्य के अंतर्गत पादोन का सामंत था, तात्या टोपे को अंग्रेजों के हवाले कर दिया गया। उन्हें 18 अप्रैल, 1857 को शिवपुरी में फाँसी पर चढ़ा दिया गया। तात्या टोपे की मृत्यु के साथ ही मध्यप्रदेश में 1857 के स्वतंत्रता संग्राम पर विराम लग गया और वहाँ ब्रिटिश शक्ति की घोषणा कर दी गयी।

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